उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थानम्
उत्तर प्रदेश शासन ने प्रदेश में संस्कृत, पालि एवं प्राकृत भाषा के सम्यक् विकास एवं प्रोत्साहन हेतु उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान की स्थापना 31 दिसम्बर 1976 को की। संस्थान के कार्य संचालन हेतु समय-समय पर शासन द्वारा अध्यक्ष एवं निदेशक की नियुक्ति की जाती है। उ० प्र० शासन में संस्कृत संस्थान का प्रशासनिक विभाग, भाषा विभाग है। अध्यक्ष के निर्देशन पर निदेशक अपने कर्मचारियों के माध्यम से समस्त कार्यों का निष्पादन करते हैं।
उद्देश्य
[संपादित करें](1) संस्कृत भाषा तथा उसके साहित्य का संरक्षण करना, उसे प्रोत्साहित करना तथा उसका विकास।
(2) संस्कृत, पालि और प्राकृत के हस्तलिखित, दुर्लभ और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का तथा संस्कृत शिक्षण से सम्बन्धित आवश्यक पुस्तकों का प्रकाशन करना।
(3) संस्कृत की वैज्ञानिक तथा अन्य महत्वपूर्ण कृतियों के हिन्दी और अन्य दूसरी भाषाओं में अनुवाद और उनके प्रकाशन की व्यवस्था करना।
(4) संस्कृत लेखकों की महत्वपूर्ण कृतियों के प्रकाशन में सहायता देना।
(5) संस्कृत लेखकों की प्रकाशित उत्कृष्ट कृतियों पर पुरस्कार देना।
(6) संस्कृत भाषा एवं साहित्य के वृद्ध तथा विपन्न विद्वानों को आर्थिक सहायता देना।
(7) संस्कृत भाषा के उच्च अध्ययन के निमित्त निर्दिष्ट अवधि के लिए सुविधायें एवं आर्थिक सहायता प्रदान करना।
(8) संस्कृत वाड्मय के विभिन्न पक्षों पर अधिकारी विद्वानों के भाषण आयोजित करना।
(9) विशिष्ट कोटि के संस्कृत के विद्वानों और साहित्यकारों को पुरस्कृत एवं सम्मानित करना।
(10) संस्कृत भाषा और साहित्य के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित गोष्ठियाँ, कवि-सम्मेलन तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि आयोजित करना।
(11) संस्कृत पत्रिकाओं का प्रकाशन करना।
(12) आकाशवाणी, दूरदर्शन तथा अन्य प्रसार-माध्यमों द्वारा संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रचार एवं प्रसार का प्रयास करना।
(13) संस्कृत भाषा और साहित्य के विकास से सम्बन्धित संस्थाओं, अनुसंधानशालाओं, पुस्तकालयों आदि को सहायता देना।
(14) संस्कृत की प्रख्यात संस्थाओं से आदान-प्रदान करना तथा सम्पर्क करना।
(15) संस्कृत के विकास के लिए केन्द्रीय सरकार से, राज्य सरकारों से अथवा अन्य संस्थाओं और व्यक्तियों आदि से सहायता प्राप्त करना।
(16) संस्कृत, पालि और प्राकृत की हस्तलिखित कृतियों (पाण्डुलिपियों) का क्रय एवं संग्रह और पुस्तकालय आदि की स्थापना की व्यवस्था करना।
(17) ऐसे सभी प्रासंगिक कार्य करना जो ऊपर निर्दिष्ट उद्देश्यों को आगे बढ़ाने में सहायक हों।